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चंद्रबाबू नायडू की राह पर नीतीश

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संतोष सिंह (संपादक) – टाइम्स आंफ स्वराज

राजनीति एक ऐसी विधा है जिसको साधने के लिए अभी तक कोई मान्य फार्मूला नहीं बना है जैसे 2014 के बाद इस देश में जितना भी चुनाव हुआ है कहीं ना कहीं हिन्दू मुसलमान वाली नैरेटिव चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में चला और बीजेपी चुनाव जीत गयी. लेकिन 2018 से यह नैरेटिव कमजोर पड़ने लगा और मोदी गुजरात और यूपी को छोड़ दे तो लगातार 7 चुनाव में हार हुई है।            

कर्नाटक में जहां  हिजाब, मुस्लिम आरक्षण और बजरंग बली जैसे मसले को हवा देने के बावजूद भी बीजेपी कर्नाटक हार गयी वहीं नीतीश इसी सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं वो आज भी मानते हैं कि 2015 की तरह लालू और मैं साथ आ गया बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाएगा और यही सोच नीतीश कुमार को चंद्रबाबू नायडू की जगह लाकर खड़ा कर दे तो कोई अचरज वाली बात नहीं होगी। नीतीश जी की प्रतिबद्धता केवल सत्ता तक सीमित है उनकी संवेदना और जन प्रतिबद्धता बाजारू है. या यूं कहें भारतीय राजनीति का सबसे घाट अवसरवादी राजनीतिज्ञ भी हैं।    
            

1995 के विधानसभा चुनाव में पहली बार और आखिरी बार लालू प्रसाद अपने दम पर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाया था राष्ट्रीय स्तर पर लालू प्रसाद का उदय पिछड़ों के  मसीहा के रूप में हुआ।                  

1996 के लोकसभा चुनाव चुनाव से ठीक पहले पटना के गांधी मैदान में गरीब रैला का आयोजन हुआ था उस रैला में जितनी भीड़ जुटी थी वह इतिहास अभी भी कीर्तिमान स्थापित किए हुए है लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव में जो समता विधानसभा चुनाव में डबल डिजिट में नहीं पहुंच पाया था वह बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और 24 सीट जीत कर लालू प्रसाद के पीएम बनने का सपना तोड़ दिया जबकि उस समय बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद के सामने दूर-दूर तक कोई नहीं था यही घमंड लालू को नुकसान पहुंचाया और पहली बार समाजवादी विचारधारा से जुड़े व्यक्ति और परिवार लालू के खिलाफ वोट किया और लालू यादव के बूथ पर भी कई जगह चुनाव हार गये।                             

इस बार भी बिहार में ऐसा ही कुछ हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी क्योंकि नीतीश कुमार गठबंधन जरुर बदले हैं लेकिन राजनीतिक शैली वही है जिसके कारण लोग नीतीश से दूर हो गये हैं कुढ़नी में अंतिम समय में यादव मुसलमान पूरी ताकत लगा दिया लेकिन नीतीश का वोटर ही उनके साथ खड़ा नहीं हुए गोपालगंज नहीं गये क्यों कि सुभाष सिंह उनके मित्र थे मोकामा नहीं गये कि बीमार थे।           

मांझी मंत्रिमंडल से बाहर हुए एक घंटे भी नहीं हुए ललन सिंह, तेजस्वी सहित सभी बड़े नेता का मुख्यमंत्री आवास से बुलावा आ गया रत्नेश सदा को फोन चला गया शाम होते होते वो पटना पहुंच गया लेकिन लालू कोटा का दो मंत्री पद कई माह से खाली है उस पर दोनों चर्चा करने को तैयार नहीं है एक को अनंत सिंह को साधना है तो दूसरे को पैसा चाहिए मंत्री बनाने के लिए ।           
ललन सिंह अनंत सिंह की पत्नी को लेकर गांव गांव घूम रहे हैं लेकिन मंत्री बनाने में डर लग रहा है जबकि अनंत सिंह की पत्नी को मंत्री बना देने से एनडीए के कोर वोटर में जबरदस्त सेंधमारी हो सकती है ऐसा ही आनंद मोहन के परिवार से किसी को मंत्री बना कर भी किया जा सकता है लेकिन नीतीश अभी भी  2010 और 2015 वाली मानसिकता में ही जी रहे हैं जबकि सच्चाई यही है जमीन खिसक चुका है. अंतिम पाली बेहतर हो इसके लिए इनके पास बहुत कम विकल्प बचा है फिर भी उन्हें अपने हुनर पर गुरुर है तमाम बोर्ड बीस सूत्री का पद वर्षो से खाली है नियत फिर बीजेपी के साथ जाने का नहीं है तो इन सब को तुरंत भर देना चाहिए था जिससे हर प्रखंड स्तर पर पार्टी के लिए एक बड़ी फोर्स खड़ी हो जायेगा महागठबंधन का और फिर इसी बहाने अफसरशाही पर भी लगाम लगेंगा।              

नीतीश को पेंशन योजना लागू करने में क्या समस्या है यह एक बड़ा तुरुप का एक्का साबित हो सकता है लेकिन नहीं मेरी मर्जी मैं जो चाहूँ वो करुं. शराबबंदी के सहारे गांव-गांव में समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी गयी है जिसको तोड़ना अब नीतीश के बस के बाहर है लालू के समय बिहार का सामान्य व्यक्ति अपराधी से तबाह था आज शराब कारोबारी से तबाह है।         

बात वैसे वोटर कि करे जो मोदी और संघ के विचारधाराओं से असहमत है वो नीतीश के इस बयान से आहत है  श्रद्धेय अटल जी थे तो ऐसा था श्रद्धेय अटल जी थे ऐसा था इस तरह के बयान से वैसा वोटर भी निराश है उन्हें लगता है इनके लिए मोदी समस्या है संघ इनके लिए श्रद्धेय है इस वजह से इस मिजाज का वोटर जदयू के उम्मीदवार के लिए घर से ना निकले। ऐसे में विपक्षी एकता का रथ बिहार में ही बेपटरी हो जाए तो कोई बड़ी नहीं होगी।

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